जनसमूदाय के लिए करूणाभरा उदबोधन

"Arushi"


सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का एक छोटा सा ये हिस्सा हमारा भारत देश है। प्रकृति की सुरम्य गोद पर्वतों के अंतराल से निकली अजस्र जल धारा गंगा-यमुना, कावेरी आदि तथा छ: ऋतुओं से सुशोभित अपनी अवर्णनीय शोभा प्रदान कर सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल को भारत भूमि सुशोभित करती है। इस पवित्र भूमि की पवित्रता युगों-युगों से अनेकों महापुरुषों, महामानव, वीतराग, भगवदभक्तों, देशभक्तों के तप, त्याग और बलिदान प्रेम से सदैव अनुप्राणित होती रही है। धर्म प्रधान आजाद देश भारत की आजादी का ये दर्दनाक दयविदारक रूप जहाँ बलात्कार, भ्रष्टाचार आतंकवाद का जाल पूरी तरह से अपना तंत्र जाल फैलाए है। क्या यही भारत की स्वाधीनता का स्वरूप है? ये सब घटनाएँ मानव समाज को झकझोर कर जागृत कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है क्या? धिक्कार है हमारे इस मनुष्यपने को, जो ऐसी घटनाओं को देखकर भी विचार करने के लिए ह्दय उद्वेलित नहीं हो पाता । मनुष्य शरीर पाकर फिर इस तरह चीटियों के समान पद दलित होकर रौंदे जाते रहना तथा दु:खों के पहाड़ ढोते-ढोते जीवन की घडि़याँ अस्पतालों में काट-काट कर बिता देना क्या यही विशेषता है हम सबकी? कब तक हम पाश्चात्य सभ्यता का अन्धा अनुकरण करके अपनी भारतीय संस्कृति से मुँह फेर कर अपने को भ्रमात्मक सांत्वना से संतुष्ट कर पाऐंगे? थोड़ा भी यदि हममें सोचने की क्षमता शेष हो तो आओ मिलकर इन सभी समस्याओं का निदान करे और अच्छे धर्मयुक्त आचारण को अपने जीवन में उतारें ताकि हम अपने से अपनी शत्रुता को छूटा सके।

धर्म क्या है? जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? हम क्यों इतने विवश है? आज राष्ट्र का नैतिक पतन क्यों इतना जोर पर है? क्या ऐसा भी कोइ जीवन है, जहाँ शांति, प्रेम तथा दु:ख का लेष न हो?
धर्म यानि वो सत्य है जो हम सब मानव मात्र के अमृत पथ है। हम सब जानते हैं बुराइ क्या है तथा अपने साथ होने वाली बुराइ को प्रत्येक व्यकित समझ सकता है चाहे वो हिन्दु हो, इसाइ हो, मुसलमान हो अथवा सिख हो। प्रति व्यकित यही चाहता है कि उसके साथी उसके साथ छल, कपट झूठ, स्वार्थ, बेइमानी आदि का व्यवहार न करें। इसी बात को हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि -'आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत'| बस इसी बात को धारण कर ले यही धर्म है। जो विधि आत्मक विधि-विधान हम प्रभू के नाते से सर्वहितकारी भाव से करते हैं वो सबके अलग-अलग हैं जिसे मत, सम्प्रदाय अथवा मजहब कहा जाता है। इसी को कहते हैं धर्म विज्ञान। मत सम्प्रदाय की भिन्नाता को त्याग कर सबको निवर्ैरता पूर्वक अपने-अपने मत का आदर करना है तथा प्रत्येक व्यकित को दूसरे के साथ वह व्यवहार न करने का प्रण लेना है जिसे हम अपने लिए अनुचित मानते हैं। ये भाव हमें मानवता प्रदान कर राष्ट्र का सच्चा नागरिक बना पाएगा। किसी भी दूसरे के सुधार का उत्तरदायित्व छोड़कर हमें अपने सुधार द्वारा समाज सुधार का सन्देश समाज में फैलाना है। अत: हमें अपने आपके गुरु, अपने ही शासक, अपने ही नेता बनकर सुन्दर राष्ट्र के निर्माण में सहयोग करना होगा। समाज में क्रानित आन्दोलन से नहीं आती अपनी दुर्वासनाओं, बुरी आदतों के त्याग से क्रानित आती है। हमारी नशा-शराब आदि की बुरी आदत ही नशे के व्यापार को बढ़ावा देती है। अत: हम सब मिलकर ये प्रण करें इन महान अपवित्र वस्तु का सेवन नहीं करेंगे, जिनके सेवन से हमारी अपनी माता-बहनों की लाज असुरक्षित हो गइ है। तो क्या नशा व्यापारी का व्यापार चल पाएगा? कदापि नहीं। धर्मशून्य राष्ट्र समाज तथा व्यकित सब ऐसे हैं जैसे किसी पागल का शरीर पूर्ण स्वस्थ होकर भी किसी काम का नहीं होता उसी प्रकार उन्नत तथा सुन्दर राष्ट्र का अर्थ सुन्दर मकान तथा सड़कें नहीं हैं| ये तो उसी प्रकार होगा जैसे-कोइ अत्यन्त सुन्दर सुसजिजत पागलखाना हो तथा उसमें रहने वाले सभी पागल हों तो क्या दशा होगी? अत: राष्ट्र की सुन्दरता धार्मिक नीतियुक्त नागरिकों से है। मनुष्य की सुन्दरता उसके नैतिक मूल्यों से है। स्त्री की सुन्दरता वस्त्राभूषण से नहीं हीदय की प्रेम करुणा वात्सल्य आदि सदगुणों से है।
इस मनुष्य शरीर को पाकर इसके द्वारा किया गया कोइ भी शुभ-अशुभ कर्म कालान्तर में हमें अवश्य अनन्त गुणा होकर सुख अथवा दु:ख के रूप में भुगतना पड़ता है। ये कर्म फल का अकाटय सिद्धान्त है।
मृत्यु-जो कि मात्र स्थूल शरीर तथा परिसिथति के रूपान्तरण का नाम है। एक लम्बी यात्रा एक-विश्राम के रूप में पड़ाव है। फिर हम अपना सूक्ष्म शरीर मन बुद्धि आदि को लेकर अपने साथ किये हुए पुराने कर्मों के अनुसार अगली यात्रा प्रारम्भ होती है। ये सब जानते हुए आज हम सब को अपने ऊपर दया दृषिट कृपा दृषिट रखते हुए अपने ही सुधार तथा परिवर्तन के उत्तरदायित्व का वीणा नहीं उठाना चाहिए। न जाने सुख को पकड़ने की तथा दु:ख से बचने की ये मृगतृष्णा रूपी दौड़ और अधिक दु:खी, अभाव, शोक, रोग में डाल देती है न जाने कितने युग बीत गए हैं इस पहेली को सुलझाते-सुलझाते फिर भी नहीं सुलझा सके।
ये सम्पूर्ण विश्व एक इकाइ है। मातृस्वरूप प्यारी बहनें निशिचत एवं निर्भीक जीवन जीने के लिए हमें अपने ही जीवन का अध्ययन क्या ये नहीं सिखाता कि हम स्वस्थ तथा मर्यादित जीवन अपनाकर रानी लक्ष्मीबार्इ, जीजाबार्इ, मीराबार्इ, सहजुबार्इ, कुन्ती, मदालसा, द्रौपदी, सीता आदि अनेक सित्रयों के जीवन से संयम, सदाचार, शालीनता, सेवा, त्याग, प्रेम, दया, वात्सल्य की प्रेरणा लेकर अपने हीदय को इन उदात्त गुणों से सुशोभित करें तथा शारीरिक भिन्नाता जो कि पुरुषों की अपेक्षा प्राकृतिक तथा वैधानिक है उसे प्राक्ृति का ही ज्ञान मानकर निर्लज्जता का त्याग कर शरीर को मर्यादित रूप से आवरण देकर शरीर की गौरव गरिमा, शीलतता की रक्षा करें। मिले हुए इस शरीर की लोक-लाज की सुरक्षा का उत्तरदायित्व हम सब का व्यकितगत है हमारी संस्क्ृति की सुरक्षा हमें आदरणीय, पूजनीय, मातृशकित का स्वाभिमान पूर्वक अपने ही जीवन के परिवर्तन तथा सुधार का प्रण लेकर संयमित मर्यादित जीवन अपनाकर धर्म की रक्षा करनी होगी। यही धर्म हम सबका सबसे बड़ा रक्षक बनकर हमारी सुरक्षा का आधार स्तम्ब होगा तथा हमारे शानितमय जीवन यापन के लिये सहयोगी बनेगा। देह अभिमान से उत्पन्ना अहम की पुषिट के लिये रावण, कौरव, कंस जैसी दुर्दशा से बच सकेंगे।
प्रिय बहनों! अपने शरीर को भोग्य वस्तु की उपमा से इसकी रक्षा करें इसे निर्जीव भोग-भोगने की वस्तु न बनाकर इसे कर्मयोनि का सार्थक रूप दें, ताकि हमारा ये जन्म कर्तव्यनिष्ठा एवं सेवा परायणता से सदा-सदा के लिए सुखी हो सकें तथा उन सब महापुरुषों के शुभाशीषों से अपने जीवन को अलंक्ृत बनाएं जिन्होंने हम सबको मानवोचित जीवन की प्रेरणा देकर जीना सिखाया है तथा जिनके प्रकाश से ये भारत पूरे विश्व में अत्यन्त गौरवशाली बना था। आओ हम सब मिलकर इस ऋषिभूमि में मनुष्य जन्म पाकर इस सृषिट को अलौकिक करें।

ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कशिचद च्छणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।।

न जातु कामान भयान लोभाद,
धर्मं त्येज्जीवित्त स्यापि हेतो:।
नित्यो धर्म सुख दु:खे त्वनित्ये।
जीवोनित्यो हेतुरस्य त्व नित्य:।।
-महाभारत सार

मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकार कर कह रहा हूँ पर मेरी बात कोइ नहीं सुनता धर्म से मोक्ष तो सिध्द होता ही है अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी उसका लोग सेवन क्यों नहीं करते?
''उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधयत:" -उपनिषद
उठो, जागो श्रेष्ठ वर को पाकर स्वयं ज्ञान को प्राप्त कर दूसरों को भी ज्ञान प्राप्त कराओं।

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So much time I spent writing this... Leave me here the words on your lips!!